
नई दिल्ली
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दो टूक कहा है कि न्यायपालिका यह तय नहीं कर सकती कि राष्ट्रपति कब और किस विधेयक के मामले में शीर्ष अदालत से सलाह ले सकते हैं। विधेयकों की संवैधानिकता पर राष्ट्रपति को सर्वोच्च न्यायालय की राय लेने के लिए बाध्य करने वाले फैसले पर आपत्ति जताते हुए केंद्र सरकार ने कहा कि अदालतें राष्ट्रपति को यह निर्देश नहीं दे सकतीं कि राष्ट्रपति अपने पूर्ण विवेक का प्रयोग करते हुए कैसे और कब और किन मुद्दों पर सर्वोच्च न्यायालय की राय लें।
इसके साथ ही केंद्र ने कहा कि राज्य विधानसभा में पारित विधेयकों पर कदम उठाने के लिए राज्यपालों और राष्ट्रपति पर निश्चित समयसीमा थोपने का मतलब होगा कि सरकार के एक अंग द्वारा संविधान में उसे प्रदान नहीं की गई शक्तियों का प्रयोग करना और इससे ‘‘संवैधानिक अव्यवस्था’’ पैदा होगी। केंद्र ने राष्ट्रपति के संदर्भ में दाखिल लिखित दलीलों में यह बात कही है, जिसमें संवैधानिक मुद्दे उठाए गए हैं कि क्या राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों से निपटने के संबंध में समयसीमा निर्धारित की जा सकती है।
राष्ट्रपति ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं
जस्टिस जे बी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की पीठ के 8 अप्रैल के फैसले को गलत ठहराते हुए केंद्र ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के माध्यम से कहा कि अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति की शक्तियों को स्पष्ट रूप से पढ़ने से पता चलता है कि “सलाह लेने का पूर्ण विवेक राष्ट्रपति के पास है। 'परामर्श' शब्द का अर्थ सलाह मांगना है और यह दर्शाता है कि राष्ट्रपति ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं हैं।”
सुप्रीम कोर्ट के फैसले में राष्ट्रपति को सलाह दी गई थी कि जब भी कोई राज्यपाल किसी विधेयक को इस आधार पर अपने विचार के लिए सुरक्षित रखता है कि वह स्पष्ट रूप से असंवैधानिक है, ऐसे में राष्ट्रपति को "विवेकाधीन उपाय के रूप में" अनुच्छेद 143 के तहत सर्वोच्च न्यायालय से सलाह लेनी चाहिए, क्योंकि ऐसे आदेशों और कानूनों की संवैधानिकता और वैधानिकता का निर्धारण करना सर्वोच्च न्यायालय का काम है।
CJI की अध्यक्षता वाली 5 जजों की बेंच करेगी सुनवाई
मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई की अध्यक्षता वाली 5 जजों की पीठ के समक्ष राष्ट्रपति के संदर्भ पर मंगलवार को होने वाली सुनवाई से पहले, केंद्र ने कहा, "कानून का कोई भी संवैधानिक प्रस्ताव, जिसमें राष्ट्रपति से प्रत्येक आरक्षित विधेयक को सर्वोच्च न्यायालय को भेजने की संवैधानिक अपेक्षा की जाती है, संवैधानिक व्यवस्था के विरुद्ध है।" केंद्र ने सर्वोच्च न्यायालय की पीठ के इस प्रस्ताव को अस्वीकार करने के तीन कारण बताए हैं।
स्थापित संवेदनशील संतुलन भंग हो जाएगा
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने यह नोट दाखिल किया है। इसमें दलील दी गई है कि उच्चतम न्यायालय के निश्चित समयसीमा लागू करने से संविधान द्वारा स्थापित संवेदनशील संतुलन भंग हो जाएगा और कानून का शासन नकार दिया जाएगा। इसमें कहा गया है, “यदि कोई चूक हो, तो उसका समाधान संवैधानिक रूप से स्वीकृत तंत्रों के माध्यम से किया जाना चाहिए, जैसे चुनावी जवाबदेही, विधायी निरीक्षण, कार्यपालिका की जिम्मेदारी, संदर्भ प्रक्रिया या लोकतांत्रिक अंगों के बीच परामर्श प्रक्रिया आदि। इस प्रकार, अनुच्छेद 142 न्यायालय को ‘मान्य सहमति’ की अवधारणा बनाने का अधिकार नहीं देता है, जिससे संवैधानिक और विधायी प्रक्रिया उलट जाती है।"
राजनीतिक उत्तर दिया जाना चाहिए, न कि न्यायिक
राज्यपाल और राष्ट्रपति के पद “राजनीतिक रूप से पूर्ण” हैं और “लोकतांत्रिक शासन के उच्च आदर्शों” का प्रतिनिधित्व करते हैं। नोट में कहा गया है कि किसी भी कथित चूक का समाधान राजनीतिक और संवैधानिक तंत्र के माध्यम से किया जाना चाहिए, न कि "न्यायिक" हस्तक्षेप के माध्यम से। मेहता ने कहा है कि यदि कोई कथित मुद्दा है, तो उसका राजनीतिक उत्तर दिया जाना चाहिए, न कि न्यायिक।
अनुच्छेद 200 और 201 का उल्लेख
उच्चतम न्यायालय के फैसले को चुनौती देते हुए, मेहता ने दलील दी है कि अनुच्छेद 200 और 201, जो राज्य विधेयक प्राप्त होने के बाद राज्यपालों और राष्ट्रपति के विकल्पों से संबंधित हैं, में जानबूझकर कोई समय-सीमा नहीं दी गई है। मेहता ने कहा, "जब संविधान कुछ निर्णय लेने के लिए समय-सीमा निर्धारित करना चाहता है, तो वह ऐसी समय-सीमा का विशेष रूप से उल्लेख करता है। जहां संविधान ने शक्तियों के प्रयोग को जानबूझकर लचीला रखा है, वहां कोई निश्चित समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई। न्यायिक दृष्टि से ऐसी सीमा निर्धारित करना संविधान में संशोधन करना होगा।"
नोट में कहा गया है कि नियंत्रण और संतुलन के बावजूद, कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जो राष्ट्र के तीनों अंगों में से किसी के लिए भी अनन्य हैं और अन्य किसी के द्वारा उन पर अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है। इसमें यह भी कहा गया है कि राज्यपाल और राष्ट्रपति जैसे शीर्ष पद भी इसी क्षेत्र में आते हैं। इसमें कहा गया, "राज्यपाल की सहमति एक उच्च विशेषाधिकार, पूर्ण शक्ति है जो प्रकृति में विशिष्ट है। यद्यपि सहमति की शक्ति का प्रयोग कार्यपालिका के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति द्वारा किया जाता है, तथापि, सहमति स्वयं विधायी प्रकृति की होती है।’’
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